जिन्दगी ना मिलेगी दोबारा
“सैर कर दुनिया में गाफिल, जिंदगानी
फिर कहाँ?
जिंदगी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर
कहाँ?“
(इस्माइल मेरठी)
पहले मैं अपना परिचय दिए देता हूं - मेरा नाम गजेन्द्र है और मैं जयपुर में
रहता हूं। मेरी पहचान कुछ हद तक एक अर्न्तमुखी व्यक्ति के रूप में ज्यादा है क्योंकि
मै अपने आपको कभी व्यक्त नहीं कर पाता हूं। यह यात्रा मैंने मई, 2015 में की थी और इसका संस्मरण
मैं उसी समय से लिखना चाह रहा था, कभी बीच में थोड़ा बहुत लिख भी लिया लेकिन इसे यह
सोच कर की पूरा संस्मरण एक साथ ही पूर्ण कर पब्लिश करूगां, कभी प्रकाशित नहीं कर
पाया। लेकिन अब आखिर में लग रहा है कि जितना हो गया है कम से कम उसे तो पब्लिश कर
दूं नहीं तो यह यादें यों ही फाइलों में हीं लिखीं रह जाएंगी। जैसे मैंने औरों के
संस्मरणों/ब्लॉग से प्रेरणा लेकर यह यात्रा की है उसी प्रकार शायद किसी और को भी
वास्तवित जीवन को महसूस करने की प्रेरणा मिल सके, इसी सोच के साथ मैं अब इसे तीन
वर्ष पश्चात् प्रकाशित कर रहा हूं। कहते हैं कि समय के साथ यादें धूमिल हो जाती
हैं परन्तु इस अविस्मरणीय यात्रा का सम्पूर्ण वृतान्त आज भी मेरे समक्ष किसी
चलचित्र की भांति सजीव है।
वैसे तो यूथ हॉस्टल से मेरा परिचय बहुत पहले से था लेकिन
पिछले कुछ सालों से इसके आर्कषक ट्रेकिंग प्रोग्राम मुझे अपनी ओर खींच रहे थे। यूथ हॉस्टल की पहचान केवल बहुत कम रूपयों में
स्तरीय घुम्मकड़ आवास उपलब्ध करवाने तक ही नहीं है बल्कि इनके द्वारा देश के लगभग सभी घूमने एवं खोज योग्य
स्थानों पर अनुठे युवा कार्यक्रमों को आयोजित करने का कार्य भी किया जाता है। इसी तरह कभी घुम्मकड़ी के
स्थानों की जानकारी लेते हुए मुझे किसी के ब्लॉग से इसके सरपास के कार्यक्रम का
पता चला जिससे मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई तथा मैने सरपास और यूथ हॉस्टल द्वारा
आयोजित करवाये जाने वाले सभी कार्यक्रमों का गहनता से इन्टरनेट पर विशलेषण किया।
उसके आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि सरपास यूथ हॉस्टल द्वारा आयोजित
करवाये जाने वाले कार्यक्रमों की सूची में पहले स्थान पर है और इसके लिए बहुत पहले
से सीटें बुक करवानी होती हैं।
उसके बाद तो पिछले 4-5 सालों से लगातार सरपास की
बुकिंग करवाई और कसोल तक की यात्रा के लिए रिजर्वेशन तक करवाया, लेकिन साहब क्या
करें किस्मत में नहीं जाना लिखा था इसलिए नहीं जा पाया और किसी ना किसी कारण से बुकिंग
अन्तिम समय पर रद्द करवानी पड़ती। लेकिन इस बार बहुत पहले से ही मैंने इसके लिए
तैयारी शुरू कर दी मेरे मन में अब सरपास का भूत चढ़ चुका था मुझे किसी भी तरह बस
सरपास जाना था जब भी किसी ब्लॅाग पर सरपास का वर्णन पढ़ता तो अपने आपको हिमालय के
उन पहाड़ों पर ही पाता, लगता जैसे वो पहाड़ मुझे बुला रहे हैं।
सरपास की बुकिंग दिसम्बर में शुरू होती है लेकिन मैंने उससे बहुत पहले ही
इसके लिए जरूरी सामान जुटाना शुरू कर दिया था। फिर बुकिंग करवाने का समय भी आ गया
शुरू के 5 बैच में सीटें तुरन्त ही भर चुकी थीं। सरपास चलने के लिए इससे पहले कई मित्रों
ने कह रखा था लेकिन जैसा की अपेक्षित होता है बुकिंग के समय ज्यादातर का कुछ ना
कुछ बहाना क्योंकि इसके लिए कम से कम 11 दिन समर्पित करने होते हैं और आना जाना
मिला लिया जाए तो यह अवधि लगभग 15 दिन की हो जाती है। इसलिए अन्तिम समय तक बुकिंग
करवाने वाले हम पांच लोग बचे थे - मैं, करन जी, विक्रम, हरेन्द्र और धर्मवीर। अब
मैं इनका भी परिचय दिए देता हूं हम सबकी उम्र लगभग एक सी ही है 30 से 35 वर्ष के
दरमयान, करन जी मेरे जीजाजी हैं, विक्रम मेरा भाई है (मौसी का लड़का) जो कोर्ट में
कार्यरत है और मुझ से 2 वर्ष बड़ा है हांलाकि लगता 5 वर्ष बड़ा है😂, हरेन्द्र मेरा
बहुत पुराना दोस्त है और एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत है तथा धर्मवीर मेरे
तथा हरेन्द्र के कॉमन मित्र हैं और पेशे से वकील हैं। इन सबको भी जोड़ने के लिए
मैंने क्या-क्या पापड़ नहीं बेले वो मैं ही जानता हूं। हमने एक साथ एसपी 6 के
लिए बुकिंग करवा ली थी। अब हम पांचो के सिर पर सरपास का भूत सवार हो चुका था और कम
से कम मुझ पर तो कुछ ज्यादा ही। सोते जागते, उठते बैठते बस सरपास ही चलता रहता।
वैसे संशय तो अभी भी था की पता नहीं हर बार की तरह इस बार भी जा पाऐंगे या नहीं लेकिन
फिर भी इस बार की फीलिंग कुछ अलग ही थी। सभी ने अभी से अपना शैड्यूल तैयार कर लिया
था अपनी अपनी छुटिटयों की अर्जियां अभी से दे दी ताकि अन्तिम समय पर कोई परेशानी
ना हो।
अब दिसम्बर-जनवरी से ही युद्धस्तर पर तैयारियां शुरू हो चुकी थी। इसके लिए
जरूरी सामानों की लिस्ट बनाई गई और सबको उनके अनुसार जिम्मेदारियां बांट दी गईं
या यह कहना उचित होगा की सब मुझे ही करने के लिए कह दिया गया कि ''भाई तू ही ले जा
रहा है तो व्यवस्था भी तुम्हे ही करनी है''। इस बार मैंने पहले से ही रिजर्वेशन
करवाने के बजाय कार से ही कसोल तक जाने का निर्णय किया। कार से जाने पर रोमान्च
और अधिक बढ़ जाता लेकिन हममें से किसी को भी पहाड़ों पर कार चलाने का अनुभव नहीं
था इस कारण डर भी था इसी के चलते हम सब के घरवाले भी हमारे कार से जाने के निर्णय
से चिन्तित थे लेकिन फिर भी किसी तरह से हम घर वालों को मनाने में कामयाब हुए और
कार से ही कसोल जाने के फैसले पर मुहर लग गई।
हमारे मन में यात्रा को लेकर कई सवाल और जिज्ञासाऐं थी जिन्हें हम इन्टरनेट ब्लॉग
और अन्य जानकारियों के माध्यम से हल करने का प्रयास करते फिर मैंने सोचा कि क्यो
नहीं फेसबुक पर इसके लिए एक पेज बनाया जाए जहां इस यात्रा से सम्बन्धित लोग एक
दूसरे से अपनी जिज्ञासाओं के बारे में सवाल-जवाब कर सकें और अपने अनुभव साझा कर
सकें और हम हमारे ग्रुप में आने वाले लोगों को हम पहले से ही जान सकें। इसके लिए
सोशल मीडिया के लगभग सारे ठिकानों को छान कर सरपास जाने वाले लोगों को खोजा गया और
उन्हें जोड़ने की कवायद की गई। इसका बहुत अच्छा परिणाम सामने आया और इस फेसबुक
पेज से लगभग सभी ग्रुप के लोग जुड़़े, कई ऐसे लोग भी जुड़े जो पहले भी सरपास जा
चुके थे। इससे यात्रा से सम्बन्धित हमारे अधिकांश जिज्ञासाओं और सवालों का जवाब
मिलने लगा था। इसके बाद हमने सरपास के लिए पहली बार व्हाटस्एप पर ग्रुप बनाया
जिसने इस ट्रिप के रोमान्च को और बढ़ा दिया। आदित्य, कुलदीप, जयमिन, 'रूप कुमार
राठौड़' सर, निधि, विकास, मयूर, रवि, श्रेयस, गुंजन आदि इसके संस्थापक सदस्य हैं।
कौन से जूते खरीदने हैं, गर्म कपड़े कितने लेने हैं, कैसे लेने हैं, वहां बर्फ
होगी या नहीं, वहां व्यवस्था कैसी होगी, खाना कैसा मिलेगा, कैसे पहुंचना है जैसे
अनगिनत प्रश्न ग्रुप में आते रहते और इनके अच्छे जवाब मिलते रहते जिसका हमें
बहुत लाभ मिला। ग्रुप में भी सभी लोग बहुत रोमान्चित थे। सारा दिन और रात व्हाटस्एप
पर ग्रुप चैटिंग में ही लगे रहते। इससे सबसे बड़ा फायदा तो हमारे विक्रम भाईसाहब
को हुआ क्योंकि एक बार परिस्थितियां ऐसी आ गईं की उनका जाना भी अनिश्चित सा हो
गया लेकिन इस व्हाटस्एप ग्रुप के सदस्य 'किरण' के कारण उनसे मिलने की ख्वाहिश
से उन्होने जाना ही मुनासिब समझा बाद में वहां पहुंचने पर पता लगा कि वो 'किरण'
नहीं किरण भाई हैं 😉। इस ग्रुप को वैसे तो 3 साल से ज्यादा (28 मार्च, 2015) हो
चुके हैं लेकिन फिर भी महिनों के सन्नाटे के बावजूद भी भावनात्मक रूप से जुड़े
होने के कारण कुछ सदस्यों ने इसे आज भी जिन्दा रखा हुआ है।
ग्रुप पर ली गई सलाह एवं उनके अनुभव को आधार बनाकर हमने अपनी ट्रिप के लिए आवश्यक
सामान जुटाना शुरू कर दिया। लेन्सकार्ट से चश्में खरीदे गए, फोरक्लॉज 700 जूते,
बर्फीले इलाके लिए अलग से ट्रेक सूट, दोस्तों से कैमरे और भी ना जाने क्या क्या
जुगाड़ किया गया। कार की सर्विस भी उसी के अनुसार करवाई गई की रास्ते में कहीं
परेशानी नहीं हो और जो भी आवश्यक अतिरिक्त सामान लिया जा सकता था, लिया गया।
अब यायावरी का समय आ चुका था, वहां जाने के लिए हमने जयपुर से एक दिन पहले यानी
5 मई को अल-सुबह 5 बजे निकलने का कार्यक्रम बनाया उसी के अनुसार सभी आवश्यक
तैयारियां की गई थी, सबका सामान पैक हो चुका था और सबका कॉमन सामान मेरे पास ही
था। लेकिन जिस दिन निकलना था उससे एक दिन पहले ही 4 मई शाम को 6 बजे ही हमारे
ग्रुप में से एक मित्र (हरेन्द्र) ने जाने में असमर्थता जता दी अब क्या करते सुबह
पांच बजे निकलने का कार्यक्रम था, अब सबका कार्यक्रम अनिश्चित सा हो गया था, एक
बार तो सोचा फिर से प्रोग्राम कैंसिल कर देते हैं लेकिन फिर सोचा अभी नहीं तो कभी नहीं
और यही सोच कर तुरन्त निर्णय लिया गया और मेरे एक मित्र नकुल जो दिल्ली में ही गृह
मन्त्रालय में कार्यरत है, को साथ चलने का ऑफर दिया गया कि सुबह चलना है 11 दिनों
का कार्यक्रम है, बेहद शार्ट नोटिस पर दिये गये ऑफर को उसने सहर्ष स्वीकार किया
और तब तुरन्त ही उसी समय रात को लगभग 9-10 बजे पहले वाले मित्र (हरेन्द्र) की
बुकिंग निरस्त कर नकुल की बुकिंग करवाई गई उनका सदस्यता कार्ड बनवाया, मेडिकल
करवाया और उसे जरूरी सामान उसी रात को ही जुटाकर सुबह पांच बजे तैयार रहने को कहा
गया।
अब समय आ गया था जब हमें निकलना था, जाने के रोमान्च के कारण रात को भी कच्ची
पक्की नीन्द आ पाई फिर भी पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अलसुबह पांच बजे घर
वालों से विदा लेकर रवाना हुआ करन जी मेरे साथ ही घर से निकले थे अब हमें पहले
विक्रम को लेना था फिर उसके बाद रास्ते में धर्मवीर और नकुल को लेना था। विक्रम
को लेकर हम सब एक पूर्व निर्धारित स्थान पर पहुंच गए जहां धर्मवीर और नकुल हमारा
इन्तजार कर रहे थे। इस कवायद में सुबह के 6 बज चुके थे हमने जल्दी से सारा सामान
गाड़ी में रखा और प्रारम्भ हो गई हमारी यात्रा। रोमांच से भरे हुए हम पांचो अपनी
यात्रा पर निकल चुके थे, हमें अभी भी यकीन नहीं हो रहा था कि हम सच में जा रहे
हैं।
हमारी नादान सोच थी की सुबह पांच बजे चलेंगे तो शाम को 7-8 बजे तक हम कसोल तक
पहुंच जाएगें सो पूरे इत्मीनान के साथ चल पड़े अपने सफर पर। रास्ते में बस इसी
की बातें करते, सफर का आनन्द लेते और चुहल करते हुए यात्रा कर रहे थे। रास्ते में
पड़ने वाले रोहतक शहर के ‘लिकर किंग’ धर्मवीर जी (वकील साहब) के क्लाइन्ट थे सो
कुछ समय उनके यहां रूक उन्हें आथित्य सत्कार का मौका देकर उनके यहां खाना खाया
फिर पुन: उनसे विदा लेकर मई की तेज गर्मी में यात्रा जारी रखी। सब बहुत उत्साहित
थे, चण्डीगढ पहुंचते पहुंचते शाम के 4 बजे चुके थे। हम राजस्थान की जेठ की तपती
सुबह और हरियाणा की लू भरी दोपहरी से होते हुए पंजाब में से निकल रहे थे लेकिन
गर्मी कहीं पर भी राहत देने के मूड में नहीं थी। इस भरी गर्मी में गाड़ी भी
जैसे-तैसे साथ निभा रही थी परन्तु ऐसी गर्मी ने ए.सी. की ऐसी तैसी कर रखी थी। रास्ते
में भी हम दो जगह और रूके जहां हमने पंजाबी भोजन और लस्सी का लुत्फ उठाया और
गर्म हो चुकी गाड़ी को भी कुछ देर आराम करने का मौका दिया गया।
मैं पहले कभी पंजाब नहीं आया था बस इसके शहरों के नाम ही सुने थे अब उन शहरों
के बीच में से हम गुजर रहे थे और सच मानिये सिर्फ उनमें से गुजरने के अहसास का भी
अपना अलग ही मजा था। अब कुछ समय बाद हिमाचल प्रदेश का रास्ता शुरू हो चुका था,
चण्डीगढ़ से आगे भी लगभग 100 किलोमीटर तक रोड बहुत अच्छी थी इसलिए यहां तक कोई
परेशानी नहीं आई लेकिन उसके बाद रोड़ की स्थिति बेहद खराब थी, इसलिए बहुत ज्यादा
समय लग रहा था। फिर जैसे ही पर्वतीय क्षेत्र में प्रवेश किया शाम का धुंधलका शुरू
हो चुका था। अब ऐसी स्थिति में कार चलाना सुरक्षित नहीं लग रहा था तब निर्णय लिया
गया कि आगे आने वाले हिल स्टेशन स्वार घाट पर ही रात बिताई जाए। अब कार चलाने ने
में बहुत परेशानी हो रही थी लेकिन फिर भी किसी तरह से शाम के सात बजे तक स्वार
घाट तक पहुंच ही गए लेकिन वहां होटल की व्यवस्था नहीं होने के कारण बिलासपुर तक
अंधेरे में ही जाने का निर्णय किया। अब पूरी तरह से अंधेरा हो चुका था और कार
चलाने में पहले से ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था ऐसे रास्तों में जहां
कभी दिन में भी कार नहीं चलाई थी वहां रात के अंधेरे में कार चलानी पड़ रही थी। वैसे
तो हम में से लगभ्ग सभी ड्राईविंग कर लेते थे लेकिन मैंने ही जिद कर रखी थी की
कार मैं ही चलाउंगा क्योंकि मुझे दूसरों की ड्राइविंग थोड़ी अखरती है (मेरी तरह
बहुत से लोगों को यह गलतफहमी होती है कि वो खुद तो बहुत अच्छी ड्राइविंग करते हैं
जबकि दूसरे लोग नौसिखया या रफ ड्राइविंग करते हैं)। इन दो दिनों में मैंने जो ड्राइविंग
करी उसे मैं शायद अपनी पूरी जिन्दगी में नहीं भूल पाउंगा। एक बार जो एक मोड़ पर
चलते समय पीछे की सीट पर बैठे विक्रम भाई बहुत जोर से चिल्लाए तो मैं भी चौंक
गया, उन्हें लगा जैसे सामने से आ रहा ट्रक गाड़ी के ऊपर ही आ रहा है। जैसे-तैसे अपने
भगवान को याद करते बिलासपुर तक पहुंचे वहां बिलासपुर प्रवेश पर ही एक होटल था होटल
‘हिल व्यू‘, वहां बेहद नोमिनल चार्ज पर अच्छी व्यवस्था के साथ रूके और सफर की
थकान उतारी। (इस होटल का भी किस्सा था - जब स्वारघाट पर रूके तो वहां मेरे मित्र
लोग होटल के लिए पूछताछ करने गए थे, मैं नहीं, दरअसल वहां पर सरकारी गेस्ट हाउस
था जिसकी बुकिंग बिलासपुर से की जाती है इसलिए गेस्ट हाउस पर मौजूद व्यक्ति ने
जो कहा उससे कम्यूनिकेशन गैप की वजह से यह समझ में आया की वहां रूम नहीं है
बिलासपुर है, यह बात मुझे स्वारघाट से निकलने के बाद बताई जबकि वहीं पर फोन से
बात कर बुकिंग करवाई जा सकती थी। अब मुझसे पहले ही गाड़ी नहीं चलाई जा रही थी और ऊपर से यह बात सुनकर
मैं और भड़क गया और हमारी छोटी सी बहस हो गई (जो सदियों से चली आ रही है और विश्वास
है आगे भी चलती रहेगी)। इसलिए मुझे ही कहा गया की अब तू ही जा और होटल बुक करवा कर
आ, अब मैं भी फस गया कि यहां भी खाली हाथ लौटे तो इज्जत पर बट्टा लग जाएगा लेकिन ऊपरवाले ने सुनी और मामला
ऐसा बैठा कि बात बन गई दरअसल शायद होटल का सैटअप अभी चल ही रहा था और उसके मालिक
भी वहीं थे उनसे गुजारिश की गई तो वो भी नोमिनल रेट में मान गए और मेरी भी इज्जत
रह गई)। वैसे उस जगह के हिसाब से वह ठिकाना बहुत ही अच्छा था सुबह उठ कर वहां से
पर्वतीय क्षेत्र को निहारने का अपना अलग ही आनन्द था।
रास्ते भर के थके हुए थे सुबह भी जल्दी उठ गए थे इसलिए कमरों में पहुंचते ही
सबसे पहले नहा धो कर खाना मंगवाया गया और वकील साहब के क्लाइन्ट का दिया प्रसाद
ग्रहण कर खाना खाया उसके बाद कब नीन्द आ गई पता ही नहीं चला। सुबह देर से उठे क्योंकि
अब जल्दी तो थी नहीं इसलिए वहां आराम से नहा धो कर नाश्ता किया और सुबह 9 बजे
फिर से हमने अपना सफर शुरू कर दिया।
यहां गर्मी जयपुर के मुकाबले थोड़ी कम जरूर थी
लेकिन इतनी भी कम नहीं की राहत मिल सके। हिमाचल के पर्वतीय रास्ते के अप्रीतम
सौन्दर्य को निहारते हुए उसके दुर्गम रास्ते के रोमान्च और और मित्रों के साथ
के अद्भुत संगम के साथ चल रहे थे। पूरे रास्ते मैं ही ड्राइव कर रहा था ऐसे रास्ते
को देखकर हाथ पांव फूल गए थे, लेकिन उसका भी अपना एक अलग ही आनन्द और रोमान्च था
जो शब्दों में बयां नहीं हो सकता है। हम लोग रास्ते का सम्पूर्ण लुत्फ उठाते
हुए चले जा रहे थे रास्ते में नदी पर रस्सियों के पुल पर फोटो सेशन किया गया
जिसमें नीचे व्यास नदी अपने शबाब पर बह रही थी, जिसे पुल के ऊपर बीच में जाकर
देखने में डर मिश्रित रोमांच का अनुभव हो रहा था। रास्ते में कहीं चट्टानें गिरी
मिली कहीं तो कहीं पहाड़ों पर किए गए धमाकों की वजह से धूल के बड़े-बड़े गुबार
देखने को मिले जो सफर के रोमान्च को बढ़ा रहे थे।
इन सबके बीच हमें अभी भी संशय
था कि वहां का मौसम कैसा होगा, बर्फ मिलेगी भी या नहीं, लग रहा था कि जब यहां तक
इतनी गर्मी पड़ रही है तो वहां तो बर्फ होगी ही नहीं और इसी बात पर शर्त भी लग गई।
'औट टनल' से पहले के तापमान और टनल की दूसरी और के तापमान में काफी अन्तर महसूस
किया तब पहली बार लगा की यहां मौसम ठीक है। पहाड़ के रास्तों से होते हुए बेहद कम
रफ्तार से चलते हुए जैसे-तैसे दोपहर के 1 बजे तक हम कुल्लू से थोड़ा पहले भुन्तर
तक पहुंच गए थे यहां से कसोल के लिए रास्ता जाता था। कसोल यहां से 35 किलोमीटर
दूर था। इस रास्ते के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी ले रखी थी कि यह बेहद दुर्गम
रास्ता है, वैसे भी अभी तक का रास्ता भी कम से कम मेरे लिए तो कम दुर्गम नहीं था
लेकिन जब इस रास्ते पर कुछ दूर तक चले तो सच में अहसास हो गया कि दुर्गम रास्ता
क्या होता है, मैं जैसे तैसे बहुत धीरे धीरे सावधानी के साथ ड्राइव कर रहा था कुछ
कच्चा कुछ पक्का रास्ता, एक तरफ सैंकडों फिट नीचे पार्वती नदी अपने प्रवाह के
साथ बह रही थी तो दूसरी ओर बिलकुल खड़ी चट्टानें थी कई जगह तो रास्ता ऐसा था कि लग
रहा था कि अब गए अब गए। अब बीच-बीच में इजरायली घुम्मकड़ भी दिखाई देने लगे थे जो
इनफील्ड से इन रास्तों का आनन्द ले रहे थे।
अब कसोल कुछ ही दूरी पर था वहां पहुंचने से पहले गाड़ी रोक कर एक बार फिर से
सारे कागजात सम्भाले और तस्सली की कि सब जरूरी कागजात लेकर तो आए हैं ना। अब
कसोल के मौसम ने रंग दिखाने शुरू कर दिए थे। कुछ ही देर में जहां सुनहरी धूप खिली
हुई थी वहां अब बारिश होने लगी थी। यहां आकर हमें पहली बार गर्मी से राहत मिली और
वास्तव में लगा कि किसी हिल स्टेशन पर आ गए हैं। थोड़ी ही देर में हम कसोल में
यूथ हॉस्टल के बेस कैम्प में पहुंच गए। यह बेस कैम्प कसोल के आरम्भ में ही
पार्वती नदी के आहते में नीचे की ओर स्थित था। वहां पहुंचने पर लगा जैसे हम किसी
अद्भुत, अप्रतिम और बेहद रमणीय स्थान पर आ गए हैं। जब हम वहां पहुंचे तो फील्ड
डायरेक्टर द्वारा हम से पहले वाले बैच (SP5) का परिचय कार्यक्रम चल रहा था। कैम्प में
रिपोर्टिंग करवाने लगे तो पता चला कि भाई नकुल का नाम उनकी लिस्ट में है ही नहीं क्योंकि
उसकी बुकिंग तो पिछली रात को ही करवाई थी और उनके पास जो लिस्ट उपलब्ध थी वह
उससे पहले की थी। तब लगा कि यह तो गड़बड़ हो गई अब क्या करें लेकिन फिर कुछ देर
समझाने और स्थिति स्पष्ट करने के बाद नकुल की भी रिपोर्टिंग हो गई तब जाकर हमने
राहत की सांस ली। वैसे हमारे पहुंचने से पहले ही हमारे चर्चे वहां पहुंच चुके थे
क्योंकि उस समय तक पहली बार किसी ने whatsapp group बनाया था जिसकी जानकारी उन्हें
भी थी।
हमें वहां टैन्ट नम्बर 10 अलॉट किया गया उसमें पहले से 6 लोग SP5 ग्रुप के थे जो कि गुजरात
से थे। वहां पहुचते ही छोटे से टैन्ट में जाना और उसमें 10 और लोगों के साथ रहना
होगा यह सोच कर शुरू में तो लगा की यह कहां फस गए फिर बताया गया कि किसी किसी टैन्ट
में तो 15 लोग तक हैं, पहले तो यह थोड़ा अजीब लगा लेकिन अब लगता है कि यही तो इस
ट्रेकिंग प्रोग्राम की खूबसूरती है। थोड़ी देर में ही उन सब से परिचय हुआ चूंकि वो
गुजरात से थे तो खाने के बहुत शौकीन थे, उन्होंने सामान्य भाव से हमसे भी उनके
निजी खाने के लिए आग्रह किया जो हमने भी किसी प्रकार से उनका हृदय नहीं तोड़ा। वो
छ: लोग थे हम पांच इसलिए पहले तो उन्होंने हमें बताया कि 'यह हमारी सीमा है और यह
आपकी' तो हमने भी कह दिया की भाई यह पूरा टैन्ट ही आपका है हम तो केवल आपके
मेहमान हैं, आप जहां कहेंगे वहां सिमट जाऐंगे। लेकिन थोड़ी ही देर में उनके समझ
में आ गया की ये अलग प्रजाती के लोग हैं क्योंकि जब हम आपस में बात करते तो उन्हें
लगता की ये आपस में लड़ क्यों रहे हैं, जबकि यह तो हमारा हरियाणा और राजस्थान का
प्रेम भरा वार्तालाप मात्र था। फिर वो जब तक रहे उन्होंने किसी भी प्रकार की सीमा
के बारे में जिक्र तक भी नहीं किया😉। इस बीच हमारे whatsapp group के मित्रों के मन में भी हम से मिलने का कौतुहल था सो कई
लोग मिलने भी आए तो उनका एक्सप्रेशन था कि ये, ये है गजेन्द्र😝, भाई लिखवा तो कुछ
भी लो लेकिन बोलने और मिलने में तो मेरे जैसे व्यक्ति को मौत ही आती है।
अभी इतना ही लिख पाया हूं जल्द ही इसका शेष भाग प्रकाशित करने का प्रयत्न
करूंगा